तुम,
फलक के उस चांद की तरह हो
जो मेरी ज़मीं से बहुत दूर रहता है
जिसे मैं देख सकता हूँ
महसूस कर सकता हूँ
मगर छू नहीं सकता
पा नहीं सकता

तुम,
पहाड़ों में ढलती उस शाम की तरह हो
जो मेरे दिन की सारी थकान
अपने साथ ले जाती है
और बदले में मुझे मिला जाती है
एक सुकून भरी रात से

तुम,
गाँव की पतली उस पगडंडी की तरह हो
जो मुझे शहर की बड़ी सड़कों की तरह
किसी शोर में उलझाती नहीं
खामोशी में आसानी से घर तक पहुँचाती है
जहाँ मैं फुर्सत के कुछ पल अपनों के साथ बिता सकूं

तुम,
इश्क़ के उस समंदर की तरह हो
जिसमें कद्र, फिक्र और समझदारी के दरिया
ज़िंदगी के कई आयामों से टकराकर
आख़िर में मिल जाते हैं

तुम,
दुखते ज़ख्म की दवा हो
इबादत में की हुई दुआ हो
परेशां रूह का आराम हो
हर सफ़र का मुकाम हो
रंज हो, खालिश हो,
बर्फ हो, तपिश हो
आब हो, ख़्वाब हो
खिजां हो, शादाब हो
तुम वो हो जो मुझे मुकम्मल करता है
तुम वो हो जो तन्हाइयों को महफ़िल करता है
तुम वो हो जिसकी तलबगार रहती हैं आँखें
तुम वो हो जो सहरा को साहिल करता है।

-Niteesh
(The Half Mask Writer)

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