कभी-कभी भावनाओं के प्रवाह में विचलित मन

ना किनारे पर जाने की चेष्ठा करता है,

और ना ही डूबना चाहता है।

वह शंका रूपी नौका में बैठा हुआ

केवल इधर-उधर हिचकोले खाता रहता है।

उसे स्वयं के अस्तित्व पर प्रश्न उठने लगते हैं,

किंतु कहीं ना कहीं उसे यह भी आभास रहता है

कि उसकी उत्पत्ति व्यर्थ नहीं है।

वह स्वयं को उत्साहित करने के लिए

बार-बार कहता रहता है;

“मेरी व्यर्थता का अंत निकट है

तथा मेरे अर्थ का उद्गम होने को है।”

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