अक्सर शहर और गाँव की वार्ता के मध्य एक कस्बे को ठीक उसी प्रकार अनदेखा कर दिया जिस प्रकार गरीबी और अमीरी की बहस के मध्य एक मध्यम वर्ग को।
एक कस्बा, जो शहर की ऊंचाइयां भी देखता है और गाँव की गहराइयां भी।
एक कस्बा, जो शहर की नींव संभाले रखता है और गाँव की छत भी।
एक कस्बा, जिसे सुविधाओं के पकवान की सुगंध तो आती है किंतु वह उसके स्वाद से अक्सर वंचित रह जाता है।
एक कस्बा, जिसे खेतों की महक तो आती है किंतु वह उसके जायके से वंचित रह जाता है।
मैं मानता हूं कि कस्बों में देखे हुए स्वप्न ही निर्धारित करते हैं शहर और गाँव की वास्तविकता का आधार।
मैं मानता हूं कि शहर के नभ और गाँव की धरा को जोड़ने के प्रयास में एक कस्बा नि:स्वार्थ होकर स्वयं के अस्तित्व को स्थिर ही रहने देता है।
एक ऐसे ही कस्बे का मैं “बैरागी” अक्सर इसकी सड़क पर चलते हुए शहर से आई सुविधाओं की सुगंध और गाँव से आती संघर्ष की महक के मध्य उस व्यंजन को चाव से खाता हूं जिसमें प्रेम, सहनशीलता, व्याकुलता और ठहराव के सारे मसाले कूट-कूट कर भरे हुए हैं।