एक सफ़र जिसमें तुम्हारी बगल वाली सीट में कोई परिचित ना बैठा हो, अक्सर कई हमसफ़र दे जाता है।
हमसफ़र जो दिखते तो नहीं मगर महसूस भरपूर होते हैं और जब सफ़र पहाड़ों का हो तो ख़्यालाें के तेल में ड्राइवर साहब के पुराने गानों का तड़का जो महक फैलाता है माहौल को ना चाहते हुए भी खुशनुमा होना पड़ता है।
जब पुराने गीतों को धुन खिड़की से आती ठंडी हवा की धुन से मेल खाने लगती है तो मन में जो संगीत पैदा होता है उसे शब्दों में बयां कर पाना थोड़ा मुश्किल ही है।
जब किशोर, मुकेश, लता और रफ़ी के नगमे इश्क़ नसों में भरने लगते हैं तो जेहन में ख़ुद-ब-ख़ुद उस एक शख़्स की तस्वीर आने लगती है जिसे हम अक्सर अपना सफ़र बना कर चलते हैं।
हर गुजरती पहाड़ की चोटी के साथ एक नया गीत और एक नया ख़्याल हमारी काल्पनिक कहानी को नया मोड़ देने लगता है और उस कहानी के पूरा होने से पहले ही ना जाने कब मंज़िल आ जाती है, हमें पता ही नहीं चलता।

8 thoughts on ““बस, सड़क और सफ़र””
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