कभी-कभी दिन भर की भाग-दौड़ और शोर-शराबा मन को इतना विचलित कर देता है कि उसमें उत्पन्न हुई उथल-पुथल का असर सुकून को कहीं दूर फेंक आता है। वो सुकून, जिसे प्राप्त करना ही स्वयं में एक लक्ष्य को पा जाना होता है। बस इसी सुकून की खोज में मैं निकल पड़ता हूँ कुछ साथियों के साथ पहाड़ी रास्तों पर। मेरे बहुत से शहरी मित्र मुझे सौभाग्यशाली बताते हैं क्योंकि हम देवभूमि में रहते हैं। हर जगह पड़ाहों की शान्ति, चीड़ और देवदार के पेड़ों की खुशबुएँ, हरे-भरे जंगल, छोटी-छोटी नहरें जिन्हें हम गाड़ कहते हैं। उनका मानना है कि शहर की भागदौड़ और शोर-शराबे के बीच उनका सुकून कहीं खो सा गया है और शायद यही वजह है कि उन्हें पहाड़ों कि तस्वीरें देखकर या वहाँ के लोगों को देखकर लगता है कि शायद शहरों का सुकून भी हवाओं के साथ उड़कर पहाड़ों में जा बसा है।
खैर, बात तो उनकी सही है लेकिन मैं पूरी तरह से भी इससे सहमत नहीं हूँ क्योंकि पहाड़ों में सुकून मिलता नहीं है बल्कि ढूँढ़ना पड़ता है ठीक अन्य जगहों की तरह। हालांकि ये बात सही है कि जब तुम्हें वह ढूँढ़ना आ जाए फिर अगली बारी कोशिश में कोई समस्या नहीं होती। तो बस ऐसे ही सुकून की खोज में मैं और मेरे कुछ साथी निकल पड़ते हैं पहाड़ी रास्तों पर, जो कभी सड़कें बन जाती हैं और कभी पगडंडियां। दरअसल सुकून का कोई विशेष गंतव्य नहीं होता, वो बस इन रास्तों के साथ चलते-चलते कब हमारा साथी बन जाता है पता ही नहीं चलता। मुझे आमतौर पर यह यात्रा शाम को करना पसंद है क्योंकि पहाड़ों की शाम स्वयं में एक औषधी का काम करती है। जब सूर्य अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर होता है और ढ़लने से पहले सारे नभ को नारंगी रंग सौंप देता है, जब दिन भर भोजन की खोज में निकले पक्षी अपने-अपने घोंसलों में वापस आ रहे होते हैं, जब चीड़, देवदार की ठंडी हवा सारे दिन की गर्मी को खुद में छुपा लेती है, तो उस माहौल में मन को किसी और विचार की ओर देखने का ध्यान ही नहीं आता। वो कुछ देर के लिए उस दृश्य को देखकर खो सा जाता है और जब सचेत होता है तो उस विचलित भाव को शांत हुआ पाता है। उसे पता भी नहीं चलता कि जिस सुकून की खोज को वो इतना कठिन समझ रहा था वो ना जाने कबसे उसके साथ ही चल रहा है।
मनमोहक
बेहद खूबसूरत वर्णन ❤️💫